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२३६ ॥ श्री श्याम तीर्थ जी ॥


पद:-

भजन में विघन करते औंघाई।

काम क्रोध मद लोभ मोह औ माया द्वैत मिलाई।

दम्भ कपट पाखण्ड मसखरी झूठ औ मन की माई।

सुमिरन करने जैसे बैठो आलस प्रथम पठाई।

झिटका रहि रहि तन को देवै संग लिहे जम्हुआई।५।

मूह बावत में तन अकुलावत नैन लगे करुवाई।

आय तुरत आपौ लपटावै संघै लेत सोवाई।

यह देवी सब के संग लागी या के बल बहु भाई।

असमय समय एक नहिं मानै पहुँचि जाय जँह आई।

नाना कारज शुभ गिरहिन के तिनहुँ क मारि भगाई।१०।

अगणित रूप धरत नहि देरी आवत देर न लाई।

बिना दुसरिहा सोवत नाहीं या की कौन दवाई।

पहिले देत संदेशा सुनिये तब फिर आवत धाई।

करै परिक्षा हरि दासन की देखत हैं चतुराई।

सांचे की तो करत दण्डवत चलत न तहां उपाई।१५।

जे हारैं तिनको लै सोवै हरि यहि हेतु बनाई।

जल भोजन या को है सोना और कछु न सोहाई।

कैसे पेट भरै कोइ या को कबहूँ न आह बुताई।

एक बार भोजन को करिये श्यामतीर्थ कहैं गाई।

राम नाम सतगुरु से लै कर भजन करौ तब जाई।२०।


चौपाई:-

काम क्रोध मद लोभ की बातैं। दम्भ पखंड कपट की घातैं।

इरषा द्वैष मोह औ माया। धूप शीत जँह पर नहि छाया।

हंसी मसखरी झूंठ बवाला। वैश्या नाच ताश औ आल्हा।

बिषय भोग चिंता दुख चरचा। तहां करत यह समय न खरचा।

चोरन को पिंसन दै दीन्ही। ऐसी देवी नींद प्रवीनी।५।

अपने वंश को खूब बढ़ावै। कलि की यह सब फौज कहावै।

शुभ कर्मन में बिघ्न लगाना। या के हाथ में है परवाना।

ब्रह्मा को तप अति यह कीन्हा। प्रगटे बिधि तब यह बर लीन्हा।

निद्रा जीत संत जग थोरे। सत्य कहौं लिखि कागज़ कोरे।

या को जीत लेय जो कोई। ताको कार्य सिद्ध सब होई।१०।


सोरठा:-

करै परिच्छा आय परखै केवल संत को।

पास होय सो जाय बनै रूप भगवंत को॥


दोहा:-

निद्रा देवी है प्रबल रहती सदा हजूर।

सतगुरु की जिनपर कृपा जीति लेत ते सूर॥