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११० ॥ श्री हुलसी माता जी ॥

जारी........

मारयौ बहु असुर आय कंसै फिरि पकरि धाय ऊँचे से नीचे लाय

कीन्ह्यौ कढ़िलैया।

चोटिया गहि कसि कन्हाय दीन्हेव तब फिरि घुमाय पटक्यो

तब धरनि लाय दीनन उधरैया।

लागी नहि देर नेक यमुना में दीन्ह फेंक मीनन बहु लीन

छेक खायो सब मसैया।१५५।

तुरतै तन दिब्य पाय नभ ते जय जय सुनाय फुलवा सुर मुनि गिराय

तन मन हर्षैया।

साज्यो तन गरुड़ आय भूषण औ वसन लाय निरखत छबि बनत भाय

ऐसी छवि छैया।

आयो तहं दिब्य यान बैठ्यौ नृप हर्ष मान चलिभो वायू समान

सुर पुर गो धैया।

सुरपति के दरश पाय तन मन में हर्ष छाय बैठ्यौ फिर यान जाय

पहुँच्यो हरि पुरैया।

उतरयो फिरि चल्यौ धाय रमा बिष्णु पास आय चरनन पर शीश नाय

पायो आशिखैया।१६०।

आयो जहं पुरुष नारि राजत हैं सुघर झारि बैठ्यौ तन मन संभारि

आसन सुखदैया।

लीला हरि की अपार पावत नहि कोइ पार शारद शिव शेष हार

और को कहैया।

हुलसी कहैं बचन सार पढ़िहै जे मन संभारि सुनिकै उर लेंय धार

दरशन दें कन्हैया।

आसा हरि पूर कीन सुन्दर दै धाम दीन मान्हु जल मिल्यौ मीन

आनन्द नहि समैया।१६४।


दोहा:-

पांच धाम को फूल गे, भाग बराबर जान।

ब्रह्मा बिष्णु महेश गृह फण पति इन्द्र के थान॥

हरे भरे रहते सदा अब हीं धरे हैं मान।

सुर मुनि नित दरशन करत हरि की लीला जान॥

हरि की लीला अगम है नहीं आदि औ अन्त।

नाम सदा सुमिरन करै सो ह्वै जावै सन्त॥

मेघनाद ही कंस भा द्वापर युग में आय।

इच्छा तन मन यह रही हरि मोहिं मारै धाय॥

पिता कि शरि वरि तब मिलै जाऊँ बिष्णु के धाम।

नारायण के दरश तहँ होवैं सुन्दर श्याम।५।


श्लोक:-

निर्गुणम् सर्गुणम् नहिं असारम के सारम्।१।

सर्वेश्वरम् सर्व रूपम् औ नाथम्।२।

हुलसितम् नाशनम् घोर मोहान्धकारम्।३।

जयति जय जयति जय कृष्ण मम प्राणम्।४।