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१०६ ॥ श्री अञ्जनी जी ॥


पद:-

क्या खेल है इस तन में हरि का सब सुर मुनि का सब तीर्थन का।

सब भवनों का सब खण्डों का सब द्वीपों का ब्रह्माण्डों का।

सब दिवसों का सब तिथियों का सब मासों का सब बर्षों का।

सब गिरहों का सब राशिन का सब योगों का सब भोगों का।

सब सूर्य्यों का सब चन्द्रों का सब तारों का सब लोकों का।५।

सब जल चर का सब थल चर का सब नभ चर का सब देसौं का। सब बाजों का आवाजों का सब रागों का सब वक्तों का।

सब सरितन का सब तालों का सब गिरि बन का सव झरनों का।

सब बेदों का सब शास्त्रों का सब श्रुतियों का स्मृतियों का।

सब अस्त्रों का सब वस्त्रों का सब भूषनों का सब रतनों का।१०।

उतपति का औ पालन का औ परलय का औ मिलने का।

सब बर्णों का सब धर्मों का सब कर्मों का सब मर्मों का।

सब मंत्रों का सब जंत्रों का सब तंत्रों का सब जग्यों का।

सब युक्तिन का सब मुक्तिन का सब भक्तिन का सब शक्तिन का।

सब पाठों का सब पूजों का सब जापों का सब ध्यानों का।१५।

सब लीलों का सब धामों का सब नामों का सब रूपों का।

श्री सतगुरु से करिये एका बतलावैं अजपा सूरति का।

खुलि जावै तार वो ररंकार हो हर दम दरशन तब हरि का।

तब शान्ति होय तन औ मन का तन छोड़ि जाव हरि के ढिग का।

यह आतम ज्ञान मिलै उनका जिन मैं औ तैं त्याग्यौ तिनका।२०।

थुव है थुव है थुव है तिनका हरि में मन नाहिं रम्यौ जिनका।

यह नर तन पायो दस दिन का बिषयों में परि खोयौ धन का।

जब समय आइहै चलने का यमदूत चलैं लै यमपुर का।

मारैं अति कष्ट देंय तन का तब कौन बचाय सकै तुमका।

लेखा लेहैं जब कर्मों का तब काह बताओगे उनका।२५।

भोगौ दुःख नर्क में कल्पों का रहि जावै मन ही में मन का।

पागल अज्ञान न हौ लरिका अब ख्याल करौ अपने घर का।

पर धन दारा में जो अटका सो जन्म मरन में फिर भटका।

हरि नाम क जानि जाव लटका जो कार्य्य तुम्हारे मतलब का।

अधमन दीनन के तारन का भक्तन के कार्य्य संवारन का।३०।

श्री गीध श्वपच सबरी गणिका श्री यवन निशाद बालि बलिका।

श्री सधन अजामिल कुब्जा का कर्मा पूतना अहिल्या का।

मारीच सुबाहु ताड़ुका का त्रिशिरा कबन्ध खर दूषण का।

हिरनाकश्यप हिरनाक्षों का औ कुम्भ कर्ण दश आनन का।

बृत्तासुर घण्टा कर्णों का औ दन्त बक्र शिशुपालों का।३५।

कहँ तक बरनै को हरि यश का नहिं आदि मध्य अन्तौ जिनका।

धनि हैं धनि हैं धनि हैं उनका हरि नाम अमोल मिल्यो जिनका।

सुर चाहत निशि दिन नर तन का तिरगुन माया से तरने का।

फिर चौरासी नहिं परने का यक टक हरि दरशन करने का।

प्रतिमा सम पधरे रहने का मुख नेक न कबहूँ खुलने का।४०।


पद:-

नाम से ध्यान ध्यान से लय हो लय से महा शून्य जाओ।

महाशून्य से श्री गोलोक में पहुँचि के हरि दरशन पाओ।

कृष्ण लोक से चलि साकेत में महा प्रकाश को लखि पाओ।

महा प्रकाश सूर्य्य अगणित जिमि उपमा और कौन गावो।

एक एक भक्तन के तन से सहस सूर्य्य सम द्युति छावो।५।

राम ब्रह्म की झांकी अनुपम सिया को उर में लखि पाओ।

होहु अभेद अखेद जबै तब नाम खुलै भव तरि जावो।

राम सिया की झांकी सन्मुख निरखि निरखि हिय हर्षावो।८।

जारी........