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५९ ॥ श्री ज्ञान दास जी ॥


कजरी:-

झांकी श्री काली माता की मेरे सन्मुख रहती यार।

काले बसन रूप अति काला काल निरखि गयो हार।

काले केश एक सौ कर हैं अरुण नयन मद मार।

कर पचास में खप्पर सोहैं कर पचास तलवार।

सीता जी ने रूप धरयौ यह रावण महा संघार।५।

काल न होय काल कर देवैं ऐसी शक्ति अपार।

कलकत्ते में रूप धरयौ श्री माता काली क्यार।

जो इच्छा सोई बर देवैं करैं भजन एक तार।

रहै न भर्म कर्म गति मेटैं जो बिधि लिख्यौ लिलार।

भाल सिन्दूर तैल युत शोभित पलकैं नेक न मार।१०।

राम ब्रह्म की झांकी सनमुख धुनी उठत रंकार।

इस रहस्य को जानै प्राणी तिर्गुण से हो न्यार।

श्याम फूल नारियल से खुश हों औ लौंगन का हार।

ज्ञान दास धनि धनि मम माता चरन कमल बलिहार।१४।