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१९४ ॥ श्री देवकी जी ॥


दोहा:-

कबसे सृष्टी हरि रची, जानत है कोइ नाहिं ।

झूठी सांची मन रुची, मानत हैं सब ताहिं ॥१॥

राम नाम में प्रीति नहिं, बकि बकि मरैं गँवार ।

बिना गुरु के भेद यह, पैहौ नहीं लवार ॥२॥