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१७५ ॥ श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदास जी ॥


पद:-

आज नयन भरि निरखि लेहु छवि चारों भाइन होत विवाहू ॥१॥

जनक पुरी की शोभा की छबि बरनि सकै को सुर मुनि साहू ॥२॥

जनक नगर सुख डगर डगर घर नर अरू नारिन मन उत्साहू ॥३॥

विविध भांति रचि मंडप छायो सुवरन मनि जड़ कलस धराहू ॥४॥

सुवरन के खम्भन मनि राजहिं नयनन में परकाश समाहूँ ॥५॥

गजमुक्तन की चौकैं पुरीं मलयागिरि चंदन पटु लाहू ॥६॥

गोघृत दीपक कलसन ऊपर जगमग जगमग जोति जलाहू ॥७॥

रामभरत औ लखन शत्रुहन चारौं महरानी तहँ आहू ॥८॥

योगी जनक तत्वदर्शी अति प्रेम मगन मुख बोलि न जाहू ॥९॥

सुर मुनि नर नारी सब बैठे ब्रह्मा वेद पढ़ैं तहँ आहू ॥१०॥

गौरि गनेश की पूजन करिकै तब फिर ब्याह के साज सजाहू ॥११॥

धेनु वसन भूषन धन दीन्हें मंगन के घर नाहिं समाहू ॥१२॥

जै जै कार जनक दशरथ को सब लोकन में शब्द सुनाहू ॥१३॥

चारौं कुँवर चारि कुंवरिन संग परत भांवरी वरनिन जाहू ॥१४॥

यक टक रहें नैन मूंदैं नहिं पलकैं ताटक सम लगि जाहू ॥१५॥

शेष शारदा शम्भु छकित सब बोलि न सकैं आनन्द उछाहू ॥१६॥

राम सिया छवि वरनि सकै को जगतजननि त्रिभुवनपति नाहू ॥१७॥

ध्यान लग्यो सुर मुनि नर नारिन जिमि प्रतिमा मंदिर पधराहू ॥१८॥

जिन विवाह निज नैनन देखा जन्म जन्म के पाप नसाहू ॥१९॥

तुलसीदास यही वर मांगैं रोज होय यह लोचन लाहू ॥२०॥