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१४६ ॥ श्री नील जी ॥


चौपाई:-

जब परभाव नाम का पावैं। हर शै में हरि दर्श दिखावैं ॥१॥

सुनै नाद सुन्दर झनकारा। रोम रोम ध्वनि होत रकारा ॥२॥

गुरु कृपा करि जबहिं बतावैं। आवागमन क दुःख छुड़ावैं ॥३॥

तब होवै साकेत में वासा। श्याम स्वरूप राम को खासा ॥४॥

तुमको ठीक दीन बतलाई। राम मिलन की सहज उपाई ॥५॥

सूरति से जप करिये भाई। सुर मुनि ऋषियन जौन चलाई ॥६॥


दोहा:-

सदा मान अपमान को सम करिकै तू मान ।

नील कहैं तब ही मिलै सुन्दर पद निर्वान ॥१॥

मानुष का तन पाय कै नाम चीन्ह जिन्ह लीन्ह ।

तिनको पदवी यह मिली हरि ढिग बैठक लीन्ह ॥२॥

या से देरी ना करौ भजहु नाम रघुवीर ।

काल सदा सिर पर खड़ा मानौ वचन गँभीर ॥३॥