१४३ ॥ श्री अग्निदेव जी ॥
सोरठा:-
कीजै गुरु का ध्यान मन मूरख को खींचि करि ।
दुःख सुक्ख सम जान सूरति शब्द में देइ भरि ॥१॥
नैनन को करि बन्द बैठे जाय एकान्त तब ।
होवौ अति आनन्द नाम खुलै हों दरस जब ॥२॥
रोम रोम झनकार रा रा कार पुकार हो ।
जानि लेय सो पार ना जानै बेकार हो ॥३॥