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६७ ॥ श्री महात्मा नित्यानन्द जी ॥

जारी........

यकइस घरी में लिखि दियो भक्तन के हित आप ।

जिनकी कृपा कटाक्ष ते छूटि जात सब पाप ॥२२॥

कहत ग्रन्थ साहव जिन्हैं सुनि लीजै मम बैन ।

पढ़ै सुनै आरति करै राम करैं उर ऐन ॥२३॥

भोग लगावैं विधि सहित श्री गुरु दर्शन देहिं ।

जन्म सुफल ह्वै जाय तब पास आपने लेहिं ॥२४॥

भावानन्द जी नाम था जनक केर अवतार ।

गुरु भाई मेरे रहे सब जानत संसार ॥२५॥

 

श्री गुरु रामानन्द जी विष्णु केर अवतार ।

बारह सँग में शिष्य हम मानो वचन हमार ॥२६॥

वही गुरु नानक भये आय जगत के हेतु ।

सब पर अति दाया करी बाँधि गये दृढ़ सेतु ॥२७॥

भक्त माल नाभा लिख्यो छा घंटा में जान ।

भाव सहित भक्तन चरित तामें है अति ज्ञान ॥२८॥

पढ़ै सुनै जो प्रेम करि छूटै यम की त्रास ।

फिरि जग में आवै नहीं रहै राम के पास ॥२९॥

गुरु कृपा ते ध्यान में देखै चरित अनूप ।

तब कैसे भूलै कहौ तन मन धन हरि रूप ॥३०॥

 

वह चरित्र लिखि लेंय सब साँचे हरि के भक्त ।

धन्य धन्य हरि भक्त हैं अधम उधारन जक्त ॥३१॥

भक्तन की लीला अकथ राम भक्त नहिं भेद ।

जानि लेव जो दीन ह्वै सब मिटि जावै खेद ॥३२॥

साँचे भक्तन पर कृपा सब देवन की होय ।

जो चाहैं सो करि सकैं बात कही हम टोय ॥३३॥

पढ़ै सुनै जो दीन ह्वै तन मन प्रेम लगाय ।

सो पावै सतगुरु दरस सांची कही सुनाय ॥३४॥

कपट कटारी त्यागि कै द्वैत को देय मिटाय ।

राम नाम परभाव को जानि लेय कछु भाय ॥३५॥

 

दिव्य संत जन होहिं जे तिन में सब सामर्थ ।

सत्य वचन यह मानिये या में कछु न व्यर्थ ॥३६॥

सज्जन जन तो मानिहैं जो कछु हरि की ओर ।

दुर्जन कैसे मानिहैं सूझै नहि निसि भोर ॥३७॥

 

सोरठा:-

होय अधिक जब पाप, तब जग में अवतरहिं हरि ।

मिटै सबै दुःख ताप, भक्तन का तन धरहिं हरि ॥१॥

 

चौपाई:-

हरि हर भक्तन चरित सुहावन। पढ़ै सुनै नित प्रति मन भावन ॥१॥

प्रेम अथाह मनोज नसावन। शान्ति स्वरूप अनूप बनावन ॥२॥

 

दोहा:-

समय जौन देखैं प्रभू तैसेहि खेलैं खेल ।

सत्य वचन सुनि लीजिये यह सिध्दान्त अपेल ॥१॥

उर प्रेरक उर में बसैं अपनै सब लिखि देंय ।

निमित लगावैं कृपानिधि जग में यश करि देंय ॥२॥

ऐसै चरित लिखे गये हरि गुरु किरपा जान ।

सत्य सत्य मैं कहत हौं मानो वचन प्रमान ॥३॥

तन मन भयो मलीन अति कपट कटारी पास ।

चारों नैना बन्द हैं कैसे होय प्रकास ॥४॥

चित्त की वृत्ति एकाग्र हो तब पावै कछु जानि ।

खेल तमाशा है नहीं कहि देवै मन मानि ॥५॥

 

निर्विकल्प को ध्यान यह नहीं कल्पना कोय ।

जैसी हरि की दया हो तैसे ताको होय ॥६॥

सर्व देव साखी अहैं झूठी यामें नाहिं ।

नर्क जाय झूठी कहै हरि हर भक्तन माहिं ॥७॥

जारी........