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६१ ॥ श्री महात्मा अवलख जी ॥


भजन:-

पास रहै क्यों नजर न आवै लागा बज्र केवाँरा है रे ॥१॥

गुरु किरपा करि मोहि बतायो शब्द से जाय उघारा है रे ॥२॥

अनहद बाजा हर दम बाजै बंशी शंख नगारा है रे ॥३॥

सूरति शब्द में जौन लगावै पहुँचै भवन मँझारा है रे ॥४॥

अपनै आप को देखि रहा है आपै खेल पसारा है रे ॥५॥

आपइ जपता आप जपावै आपइ शब्द उचारा है रे ॥६॥

आपइ सब में सब आपइ मे आपइ गोरा कारा है रे ॥७॥

आपइ आप में आप आप ही आपइ अगम अपारा है रे ॥८॥

कौन मरै काको को मारै कौन तरै को तारा है रे ॥९॥

आपइ आप आप हैं आपइ आपइ जानन हारा है रे ॥१०॥


दोहा:-

ब्याही को बिन ब्याही मानो बिन ब्याही को ब्याही॥

जो यहि पद के अर्थ लगावै वह साधू हम वाही ॥१॥

छोटी को लड़की समुझु सम को बहिनी मान ।

माता सब से बड़ी को कहत हैं वेद पुरान ॥२॥