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३५२ ॥ श्री गोरे खां कसाई ॥

पद:-

जब तक मारग मिलै न घर का तब तक जीव बहुत अकुलाय।

सतगुरु बिना भेद नहिं पावै जग में चक्कर खाय।

खुलैं किवाड़ी चढ़ै अटारी अनहद सुनि हर्षाय।

ध्यान में लीला नाना देखै जो नहिं बरनि सेराय।

होय प्रकाश समाधि में जावै सुधि बुधि तहां हेराय॥५।

 

उतरै सन्मुख झांकी बाँकी राम सिया सुख दाय।

सुर मुनि आवैं हिये लगावैं गोद में लेंय उठाय।

तन मन प्रेम से सूरति शब्द में लागै सब बनि जाय।८।