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॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल १२ ॥ (विस्तृत)

१७६. एक साधू को समझाना:-

जब चना की रोटी बिना नमक के खा लो तब भजन होगा। माल पुआ-तसमई (खीर) पाकर भजन न होई। सारा खेल मन का है अच्छा कर्म करेगा अच्छी गती। खराब कर्म करेगा खराब गती। 

१७७. कबीर जी, रैदास जी, पलटू जी, जगजीवन जी जितने संत भारत में हुए हैं सबका एक मत है, कोइ द्वैत नहीं किया। बहुत भक्त मन मुखियां बीच में परदा डाला पर सच्चे भक्तों ने नहीं माना है। भगवान अधम उधारन हैं। 

१७८. एक रंडी (वेश्या) थी। उसने एक साधू से पूछा- हम भी भगवान को भोग लगावेगें। साधू ने कहा- तुमने बहुत पाप किये, तेरा भोग नहीं लगेगा। रोई खूब। फिर साधू को दया आई, तब साधू ने कहा अच्छा भोग बनाकर लाओ। भोग बना कर ला रही थी, कि अशुद्ध हो गई। भगवान ने मत्था झुका दिया - भोग लगा दिया। भगवान भाव के भूखे हैं । 
१७९. जिस देवता को पकड़ो जप-पाठ-पूजा करो, तब धुकुर-पुकुर न करो - तब काम बनेगा। देवता सब जानते हैं। बनुआ (दिखावटी) भक्त न बनो। 

१८०. दीनता आई नहीं - प्रेम पथ पाई नहीं। 

१८१. एक साधू थे, उनके दाढ़ी जटा नोच ली बदमास ने। साधू बोले - क्या खइहौ, क्या खइहौ (खाओगे)? यहाँ मार डालते। बताओ, साधुता कैसी? हम फटकारित नाहीं किसी को। 

पद: जि़क्र करते हैं, किसी का न बुरा चाहते हैं । 
सब में लखते हैं, सदा मस्त बने रहते हैं ॥ 
(जि़क्र उ स्मरण; लखते उ देखते) 

१८२. जो सबका भला चाहता, उसका भगवान भला करते हैं। जो अपने को सुख देकर दूसरों को दुःख देते वे राक्षस हैं। 

१८३. भगवान गुड़ से, गुड़धनिया, चना से खुश रहते हैं। अपना सच्चा भाव होना चाही। 

१८४. सबको पैसा चाही, भगवान नहीं। पहले गाय भैंस का बच्चा पैदा होने पर १०-१२ दिन का दूध नहीं काम में लिया जाता था। अब शुरु से ही हलवाई खोवा बना कर बेचने लगे हैं। बताओ, पेड़ा का भोग भगवान को कैसै लगे? बेईमानी की हवा चल पड़ी, नाश होने वाला है। लाई गुड़ का भोग लगाना ठीक है। 

१८५. भजन में सहनशक्ति की बड़ी जरूरत है। कोई मूते, थूके, रंज न हो। सब जीवों में भगवान हैं - सब जीवों पर दया करे। हम सब जाति के (जनों की), मेहतर, चमार की टट्टी धोये हैं, इसी से पट खुल गये। अपनी सच्ची कमाई का सादा भोजन होगा, तब वैसी धातु, मन, बुद्धि बनेगी। तब भजन हो सकेगा। 

१८६. एक मल्लाह सीतापुर में था, वह कण्ठ से राम राम कहता था। उसी से सब देखने, सुनने लगा। 

१८७. मन खराब काम में, बढ़िया खाने में, दूसरे की बुराई सुनने में, दूसरे को कष्ट देने में लगता है, तब शान्ति कैसे मिले? मन बड़ा बेईमान है, अच्छे काम में नहीं लगता। 

१८८. कौशलकिशोर शुक्ला, उन्नाव, का पोता ३ व ४ बरस का आया। भगवान कृष्ण की नकल से, खड़ा होकर मुरली की दशा में खड़ा होकर, महाराज जी से प्रार्थना करना शुरू किया कि हमें भगवान का दर्शन कराओ। महाराज कहे 'होंगे'। तब अपने बाबा से कहने लगा कि यह नहीं कहा - स्वप्न में होगें या जागृत में। तब फिर प्रश्न किया। तब महाराज कहे - भगवान बालकों के साथ खाते खेलते हैं। तब उसे शान्ति भई। हमारे सामने की बात है। 

१८९. हमारे एक भक्त हैं - गाजियाबाद रहे, कलकत्ता रहे, अब बम्बई में हैं। पाँच हजार पाते हैं। हमसे कहे - डालडा में कबूतर-सुअर की चर्बी परती है। बताओ, भगवान का भोग लगता है - नाश होने वाला है। बल बुद्धि, तेज सब हत (समाप्त) हो गया डालडा खाने से।