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॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल ११ ॥ (विस्तृत)

१६१. जब तक संसारी चिन्ता लगी है, तब तक आँखी कान नहीं खुल सकते हैं। भन-भनाहट पहले सब तरह की होती है। फिर तरह तरह के बाजा बजते हैं। गाना होता है। फिर सब देवी देवता दरसन देते हैं। 

१६२. जप-पाठ-ध्यान करने वाला किसी को अपने सरीर से दु:ख न दे। नहीं तो (पाँचों) चोर सब लूट लेते हैं। 

१६३. हर काम का समय भगवान बाँधे हैं, समय पर ही सब काम ठीक हो जावेगा। बड़े बड़े दु:ख भक्त झेल डालते हैं। 

१६४. जप, पाठ, पूजन, कथा कहना, कथा सुनना, कीर्तन करना, हवन, सेवा धर्म सब मन के जरिये से होते हैं। मन लग जाय तो तुरन्त फल मिलता है। मन न लगा तो चित्रगुप्त खाते में गैर हाजि़री में लिख दें। अगर खराब काम में मन लगा तो नर्क वाले खाता में लिखते हैं। बहुत भक्त हमसे कहे हैं - हम तो पढि़ सुन के कंठ किये हैं प्रचार करते हैं। दुनियावी शौक अन्दर भरी है। बढ़िया भोजन, बढ़िया कपड़े, मान बड़ाई में मस्त हैं, जो कोई तारीफ करता है, तो बड़े खुश होते हैं। बुराई करता है, तो रंज होता है। खूब पैसा मिलता है, घर में देते हैं। घर वाले भी खुश रहते हैं। मन काबू नहीं है। यहाँ मौज करते हैं। मर कर अकेले जावेंगे। हमारे साथ कौन जावेगा। बाहर खूब दीन भाव दिखाते हैं, तो पैसा खूब मिलता है। 

१६५. पद:-
निंदा सुनकर जो खुश होवै। सो सियाराम का पूत। 
अस्तुति सुनकर जो खुश होवै, सो कुपस का मूत॥ 

निन्दा मल को धोइ ले, अस्तुति मल दे लाद। 
रामदास नागा कहें, साधक हो बरबाद॥ 

१६६. साधक को मारे कोई, वाके (उसके) जोरे हाथ। 

१६७. बड़े महाराज कहते थे - हजारों आदमी बैठे थे, एक आवा। महाराज की अंगुली चबा गया, चर-चर। महाराज बोले - भूखा है भाई, आधा सेर मिठाई लाओ, खिलाओ। 

१६८. जिस देवी देवता से प्रेम हो आराधना कराइये। रत्न धारन किये कुछ न होगा। केवल देवाराधना से पाप पिछले कट कर मन लगने लगता है - कल्याण होता है। 

१६९. चाहे जितना भेष बनाकर तीर्थ, देश-देशान्तर घूमिये, यदि कपट है - तो भगवान के भवन में प्रवेश न पा सकोगे। द्रोह मानने वाला बिना अग्नि के जला करता है। न जगत में सुख और न परलोक में ही शान्ति। 

१७०. जब किसी से बैर न हो, अपना लड़का और चमार का लड़का बराबर समझे तो भगवान खुश रहते हैं। तो आशीर्वाद वहाँ भेज देते हैं। गन्दे दिल में वह आशीर्वाद नहीं जाता है, लौट जाता है। 

१७१. देव दरसन, सेवा और जप से कीर्तन से, पाठ से कल्याण होता है जिसका मन जिसमें लग जाय। इसमें सबसे नीचा अपने को मान ले। दीनता आ जाय शान्ति मिल जाय। बेखता, बेकसूर कोई गाली दे धक्का मारे तुम्हें रंज न हो। कोई तारीफ करे खुश न हो। झूंठ न बोलो। किसी का जीव या जीविका जाती हो तो झूठ बोलने में दोस नहीं है। अपनी सच्ची कमाई का अन्न खाव। सब के दुःख सुख में सामिल रहो। बेइमान का अन्न न खावे। सादा भोजन, सादे कपड़े पहनौ। अपने परिवार का पालन करौ। एक नीच जाति का बालक हो, उसको अपने पुत्र समान मानो। किसी के कुछ काम काज हो बिना बुलाये जावै। काम सधै कर दो। बहुत बातें हैं कहां तक लिखें। कोई चल नहीं सकता। 

१७२. जिस अन्न से, फल से, पेट साफ रहे वही खाव। 

१७३. मान अपमान भजन के बाधक हैं। घूर (कूड़ा दान) बन जाओ पट खुल जांय। भगवान की लीला भगवान जाने। अपने को सबसे नीचा मान लो, भजन तब होगा। यहाँ की इज्जत पर लात मारने पर वहाँ की इज्जत मिलती है। 

१७४. जहाँ का अन्न जल जै दिन का होता है, तै दिन भगवान उसे वहाँ रखते हैं। वैसे न वह जा सकता है, न कोई भेज सकता है। भगवान खुद ब्रह्मा के लिखे को मानते हैं। जिनका संसार बनाया है। 

दोहा: राम न जाते हिरन संग, सिया न रावन साथ । 
जो रहीम भावी कतहँु, होत आपने हाथ॥ 

१७५. सीताराम-सीताराम जपा है। नाम के अन्दर वेद शास्त्र सभी धर्म ग्रन्थों का समावेश है। सब नाम के अन्दर हैं। जब साधक दीन बन जाय और शान्ति मिल जाय, अपने को सबसे नीचा मान ले तब देवी देवताओं की कृपा मिल जाती है। सभी देवी देवता प्रगट होकर वरदान देते हैं।