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॥ अथ जय माल वर्णन॥

 

जारी........

तेल में तर दीजै करवाय। फेरि दीजै अग्नी लगवाय॥

जाय जरि पूँछ चिन्ह हो भाय। न जावै फिर रघुबर ढिग भाय॥

जाय जंगल में रहै लुकाय। शरम के मारे बदन छिपाय॥

निशा में निकसै दिवस न भाय। कहै रावण तुम ठीक बताय॥

हमारे भाई अति सुखदाय। कहै लै आओ वीरौं जाय।१०१०।

 

धाम मेरे से बसन उठाय। तेल चाँदी पात्रन में भाय ॥

लै आओ देर न कीजै धाय। लगावो लूम में अग्नी भाय॥

तमाशा देखौ सब हर्षाय। सुनत ही दौड़े निश्चर भाय॥

लै आवैं वसन व तेल उठाय। पूँछ में बसन लपेटैं आय॥

बढ़ै वह धीरे धीरे भाय। बसन जीरन रावन गृह भाय।१०२०।

 

रहै नहिं नये लेय मँगवाय। चुकैं जब नये कहै रिसिआय॥

जाओ गृह गृह से लाओ जाय। सबन को थोड़ी देर बिताय॥

देहों चौगुन बसन मँगवाय। लै आवैं गृह गृह ते सब धाय॥

रहैं नहिं नये पुरानौ भाय। पूँछ में जाँय सबै खपि भाय॥

ज्ञान पर सब के परदा आय। रहैं नहिं बसन लंक में भाय।१०३०।

 

जौन जो पहिरे वही देखाय़। कहैं रावन ते सबै सुनाय॥

वस्त्र चुकि गये कहाँ ते लाय़। कहै रावन सुनिये सब भाय॥

तेल अब डारौ पूँछ पै जाय। तेल जब परै पूँछ पै भाय॥

पता नहि लगै कहाँ को जाय। मँगावै तेल बहुत फिरि भाय॥

न होवै तर तब अति रिसिआय। लै आओ घृत हण्डा बहु भाय।१०४०।

 

सोबरन के सुन्दर सुखदाय। भिजावो पूँछ को खूब अघाय॥

चुवै जब धरती तर ह्वै जाय। लै आवैं घी सब बीर उठाय॥

न भीजै राम दूत लूमाय। कहै रावन तब बचन सुनाय॥

पूरी भर से लै आओ जाय। सबन से कहि दीजै समुझाय॥

उन्हें हम दस गुन देव मंगाय। चलैं लै लै आवैं सब भाय।१०५०।

 

तेल घृत नगर रहन नहि पाय। पूँछ पर छोड़त जितनै भाय॥

नाम परताप खपत सब जाय। चुकै जब रहै न पुर में भाय॥

कहै तब रावन अति रिसिआय। पूँछ में आगी देहु लगाय॥

चलै अब और न कोइ उपाय। आय तहँ शारद माता जाँय॥

न जानै निश्चर रावन राय। करैं परनाम पवन पूताय।१०६०।

 

देंय आशिष माता हर्षाय। बिजै होवै तुम्हरी पुत्राय॥

देर अब नहीं समय गो आय। छोरि कै ब्रह्म फाँस को भाय॥

जाँय बिधि के कर देंय गहाय। मनै मन पवन तनय हर्षाय॥

कहैं अम्ब शारद भई सहाय। धूप की लकड़ी जलदी भाय॥

लै आवै मेघनाद हर्षाय। शोच तन अक्षय कुमार को छाय।१०७०।

 

क्रोध करि पूँछ में देय लगाय। उठैं हनुमान हृदय हर्षाय॥

सुमिरि कै राम नाम सुखदाय। चहुँ दिशि घूमैं उछरैं भाय॥

हँसै रावण समाज सुख पाय। धरैं फिर बिकट रूप दुख दाय॥

काल को काल देखि डरि जांय। करैं तहँ शब्द जोर से भाय॥

निशाचर सुनि कै सब थर्राय। चढ़ैं फिर कूदि लंक शिखराय।१०८०।

 

घुमावैं लूम को खूब बढ़ाय। पुरी के चारों तरफ से भाय॥

अगिनि की ज्वाल बढ़ै दुखदाय। भगैं सब हाय हाय चिल्लाय॥

न सूझे अपन परावो भाय। जान अपनी अपनी लै भाय॥

भगैं औ गिरैं उठैं घबराय। कहैं यह दूत नहीं है भाय॥

काल सब का पहुँचा है आय। हंसी रावन ने कीन्हीं भाय़।१०९०।

 

उसी का फल सब को मिलि जाय। बड़ा पण्डित रावण कहलाय॥

गई सब विद्या कहाँ हेराय। बचन यह रावण सुनि लेय भाय॥

जारी........