साईट में खोजें

॥ अथ जय माल वर्णन॥

 

जारी........

कहै मेघन से देव बुझाय। क्रोध करि मेघ जुटैं तब आय॥

होय नहिं शान्त और अधिकाय। चलै बस नहीं किसी का भाय॥

देव सब अपने मनहिं मनाय। दिवस दुइ घण्टा का तब भाय।११००।

 

लंक पर खेल कीन कपिधाय। प्रेरणा हरि की तेजो भाय॥

लीन बजरंग को मन में ध्यान। वही उबरे जानो सब भाय॥

और तो जरि स्वाहा ह्वै जाय। निकसि वै गये उदधि तट भाय।

रहे हनुमानै हिय सब ध्याय। दौरि रावण घननाद गे आय॥

सोय रहे कुम्भकर्ण जहँ भाय। पकरि कर एक रफ दोउ भाय।१११०।

 

घसीटि कै बाहेर ले गये धाय। बिभीषण को गृह जरय्यौ न भाय॥

अनल हरि की भक्तौं हरिकाय। लाल सब भवन ऐस ह्वै जाँय॥

देखतै बनै कहै को भाय। मणी चिटकैं बहु शब्द सुनाय॥

दगै गोला जस खुशी में भाय। पिघिल सोना चाँदी बहि जाय॥

पुरी के डगर डगर में भाय़। एक गज ऊँचा भरा है भाय।११२०।

 

निरखि कै नैन नहीं ठहराय। घरी ढाई में पुरी को भाय॥

जरायो घूमि घूमि गोहराय। आय कोइ पुरी को लेय बचाय॥

होय योधा तेहि कहौं सुनाय। पुरी लंका कर जोरि के आय॥

कहै अब कृपा करो मुददाय। आप सम कौन दास जग भाय॥

राम में रमें शम्भु रूपाय। आँच हम से अब सही न जाय।११३०।

 

शरनि हौं बार बार शिर नाय। सुनैं यह बैन लंक के भाय॥

दया उर में अति जावै आय। उदधि तट कूदि के पहुँचैं जाय॥

बुझावा चाहैं पूँछ को भाय। करै बिन्ती समुद्र शिर नाय॥

हाथ जोरै सुनिये सुखदाय। जाय जल खौलि सबै दुख पाय॥

जीव सब मरैं जलहु गन्धाय। कृपा करि रहौ किनारे भाय।११४०।

 

बुझावैं हम लहरिन हर्षाय। बहुत जलदी हम देंय बुझाय॥

आप की कृपा से मानो भाय। खड़े हों दक्षिण मुख सुखदाय॥

पूँछ उत्तर मुख रही सहाय। उदधि सुमिरै अँजनि सुत भाय॥

लूम पर लहरैं दे सुखदाय। मिनट पन्द्रह में देय बुझाय॥

भक्त का बल समुद्र उर आय। दीनता से समुद्र फिर आय।११५०।

 

परै चरनन में तन पुलकाय। उठाय के कपि उर लेंय लगाय॥

कहैं सब आगे कि बात सुनाय। आइहैं कटक संग रघुराय॥

परै डैरा तुम तट पर भाय। करौ नित दर्शन प्रेम लगाय॥

और क्या चाहत हौ तुम भाय। बांधिहैं सतु पार तक भाय॥

तुम्हारे ऊपर नल नीलाय। श्राप मुनि की उनको है भाय।११६०।

 

छुवो जो पत्थर जल उतिराय। जाव हम तुम से कहेन सुनाय़॥

हमारे ठाकुर खेलि बहाय। रोज तुम जल में देत डुबाय॥

देर पूजन में होवै भाय। भोग में बारह तक बज जाय॥

उपदर व हमका यह न सुहाय। श्राप वह यहाँ पर होय सहाय॥

देखिहौ आपौ हिय हर्षाय। सन्त होवैं नाखुश जो भाय।११७०।

 

तहँ कछु देते हैं गुन भाय। मारि रावण परिवार को भाय॥

बिभीषण अभय करैं हरिआय। बिभीषण करैं राज लंकाय॥

प्रजा को होवै सुख अति भाय। छुटैं बन्धन उनके अब भाय॥

जिन्हैं है रावन रहा सताय। सुनै यह बैन उदधि सुखदाय॥

हर्ष हिरदय में नहीं समाय। करै परनाम फेरि बहु भाय।११८०।

 

भेंट बहु रतनन की लै भाय। दूत तुम जिनके अति बल भाय॥

भला स्वामी की को कहि पाय। कृपा करि भेंट लीजिये भाय॥

भक्त भगवंत न अन्तर आय। कहैं हनुमान सुनो मम भाय॥

हमारा धर्म नहीं यह आय। भाव स्वामी औ सेवक भाय॥

निबाहै जब तक जगत रहाय। नहीं तो धब्बा तन लगि जाय।११९०।

जारी........