साईट में खोजें

॥ अथ जय माल वर्णन॥

 

जारी........

होंय अन्तर चारों सुखदाय। लखन के पगन को रावण राय॥

छुवन चाह्यौ पर छुवन न पाय। कहैं लछिमन सुनिये मम भाय॥

आप ब्राह्ण हम ठाकुर आँय। जगत की मर्य्यादा यह आय॥

मेटि हम नहीं सकत हैं भाय। राम शिव सीता गिरिजा भाय।१८६०।

 

पूज्य सब जग के हैं सुखदाय। हमारा दास भाव है भाय॥

हमैं यह अनुचित परत दिखाय। टहलुआ स्वामी बनै जो भाय॥

नरकहू गये ठौर नहिं पाय। आप तो वेद शास्त्र को भाय॥

पढ़े हौ तुमको को समुझाय। तयारी करो चलन की भाय॥

प्रतिष्ठा होवै शिव पधराय। सुनै रावण तन मन हर्षाय।१८७०।

 

प्रतिष्ठा की ले वस्तु मंगाय। चलै रथ को लै लखन बिठाय॥

बिभीषण जाँय भवन हर्षाय। बाटिका अशोक रथ ठहराय॥

उतरि कै लखन संग हर्षाय। चलै आगे रावण तब भाय॥

लखन पीछे पीछे सुखदाय। मातु के ढिग जब पहुँचैं जाय॥

परैं दोऊ जन चरनन धाय। देंय आशिष कहैं सिय सुनाय।१८८०।

 

कहाँ आये रावण लखनाय। देंय लछिमन सब हाल बताय॥

हर्ष से चलैं जानकी माय। बैठ जाँय रथ में सीता आय॥

गोद में लछिमन रहे सुहाय। उड़ावै रथ रावण हर्षाय॥

जाय के प्रभु ढिग पहुँचैं जाय। कूदि के रथ पर ते तब भाय॥

चरन में परै हिया हर्षाय। उठाय के प्रभु उर लेंय लगाय।१८९०।

 

फेरि कर शिर पर पास बिठाय। लखन औ माता उतरिं के आय॥

चरन पर परैं बोलि नहिं जाय। उठैं औ बैठैं मन हर्षाय॥

कहैं तब राम लखन ते भाय। बहुत जलदी आयो सुखदाय॥

कौन बिधि गयो देव बतलाय। देर कछु नहीं लगी सुखदाय॥

कहैं लछिमन आपै किरपाय। देव मोहिं पवन लै गयो धाय। १९००।

 

न मान्यौ पीठि पै लीन चढ़ाय। उतारय्यौ लंक निकट पै जाय॥

वहाँ की शोभा कही न जाय। वहाँ पर लिखा देखि हम भाय॥

बिभीषण के गृह पहुँचेन जाय। बिभीषण देखि हिया हर्षाय॥

प्रेम से मिलै नैन झरि लाय। कीन जलपान वहाँ सुखदाय॥

चले संग रावण के गृह भाय। गयन जब रावण भवन को भाय।१९१०।

 

वहाँ की शोभा अति सुखदाय। सोबरन पत्र जड़े सुखदाय॥

हरे स्फटिक के भवन पै भाय। लिखा चाँदी के सम शुकुलाय॥

शम्भु का नाम बिचित्र सुहाय। भीतरौ बाहर छत में भाय॥

देखतै बनै कहन नहिं आय। गयन याही बिधि ते हम भाय॥

दीन साँची प्रभु सब बतलाय। कहैं श्री राम सिया सुखदाय।१९२०।

 

करौ अस्नान उदधि हर्षाय। चलैं सीता लछिमनहिं लिवाय॥

संग हनुमानहुँ चलि दें भाय। करैं अस्नान मातु सुख पाय॥

फेरि लछिमन हनुमान नहाँय। आय के उदधि चरण परि जाय॥

भेष ब्राह्मण ग्यारह बर्षाय। एक जोड़ी कंगन सुखदाय॥

सोबरण के मणि जड़ित सोहाय। चमक तिनमें ऐसी है भाय।१९३०।

 

नयन देखत जावैं चौंध्याय। दोऊ चरनन पर धरि के भाय॥

खड़ा कर जोरे शीश नवाय। कहैं माता जग की सुखदाय॥

दीन की भेंट लेहु यह माय। आज धन्य भाग्य हमारो आय॥

चरण परसैं हमहूँ सुख पाय। आवरण के सब जीवन माय॥

भयो अति सुक्ख कहा नहिं जाय। किलोलैं सब मिलि रहे मचाय।१९४०।

 

एक ते एक लिपटि हर्षाय। सुनैं यह बैन जानकी माय॥

कहैं लछिमन ते लेहु उठाय। उठावैं लखन दोऊ कँगनाय॥

देंय हनुमान को फेरि गहाय। उदधि ते कहैं मातु सुखदाय॥

करौ आवरण में आनन्द जाय। घटै नहिं बढ़ै आवरण भाय॥

जारी........