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प्रस्तावना


       यह अत्यन्त हर्ष की बात है कि परमपूज्य गुरुदेव श्री राममंगल दास जी महाराज जी की असीम कृपा से, उनके ही कर-कमलों द्वारा स्लेटों पर लिखे उपदेशों का यह संकलन प्रकाशित हो रहा है।

       जैसा कि सबको ज्ञात है कि पूज्य महाराज जी निरंतर ब्रह्मलीन अवस्था में अनहद नाद सुनते रहते थे। वे कहते थे कि 'अन्दर (अनहद नाद का) हाहाकार मचा हुआ है'। इसी कारण वे अपने कानों से बाहर की आवाज़ नहीं सुन पाते थे। अत: भक्त अपने प्रश्न व प्रार्थनाएँ एक पत्थर की स्लेट पर, जो कि श्री महाराज जी के तखत पर रखी रहती थी, उस पर लिख कर देते थे। पूज्य श्री महाराज जी उस स्लेट को पढ़कर अपने श्रीमुख से उत्तर देते थे व शंका समाधान करते थे। कभी कभी अपना उत्तर स्वयं स्लेट पर लिख कर देते थे, या कभी अपनी ही मौज में बिना किसी के प्रश्न पूछे स्वयं स्लेट पर अपने उपदेश लिख कर देते थे। फिर कहते थे, 'पढ़ो'। भक्त-जन उस स्लेट को पढ़ लेते थे। स्लेट फिर मिटा दी जाती थी ताकि कोई दूसरा भक्त अपनी प्रार्थना निवेदन कर सकें। भगवत्-स्वरूप श्री महाराज जी के उपदेश बस भक्तों के हृदय में रह जाते थे। उनको कहीं एक जगह व्यवस्थित रूप से नकल करके एकत्रित नहीं किया जाता था। कुछ भक्त बस स्वयं के लिये लिखी स्लेटों को कागज़ पर उतार कर ले जाते थे।

       पर भगवान की लीला विचित्र है। पूज्य श्री महाराज जी की प्रेरणा श्री दामोदर गुप्ता जी को हुई। उन्होंने महाराज जी के श्रीचरणों के निकट बैठकर उनकी करीब ३०० स्लेटों के उपदेशों को अक्षरश: संकलित किया। भगवत्प्रेरणा से ही, उन्होंने इन उपदेशों को 'गोकुल भवन (गुरुदेव के आश्रम) तथा बजरंग भवन (गुरुदेव के निवास स्थान) रूपी वैकुण्ठधाम के कल्पवृक्षों के बगीचे के भक्तिवर्धक पुष्पराज' माना तथा इन उपदेशों के संकलन का नामकरण 'वैकुण्ठ धाम के अमृत फल' किया, तथा अपने पास परमश्रद्धा से सुरक्षित रखा।

       सबसे पहले मैं श्री बलराम वर्मा जी को अत्यन्त धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने श्री दामोदर जी द्वारा किये इस संकलन के बारे में बताया। मैं श्री दामोदर जी का अति कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने इस अमूल्य धरोहर को जन कल्याण के लिये प्रकाशित करने की अनुमति दी तथा इस संकलन की मूल प्रति प्रदान की। 

       परंपूज्य गुरुदेव श्री राम मंगल दास जी द्वारा लिखित दिव्य-ग्रन्थों तथा उपदेशों के प्रकाशन की अनुमति व सतत् सहयोग प्रदान करने के लिये श्रद्धेय श्री रामसेवक दास जी को मैं हृदय से नमन करता हूँ। इस महान कार्य में समस्त आश्रमवासियों की सद्भावनाओं के लिये उनको धन्यवाद देता हूँ। इन दिव्य ग्रन्थों तथा वाणियों के वितरण के अथक प्रयासों के लिये श्री अवस्थी जी का मैं बहुत कृतज्ञ हूँ। आदरणीय श्री बलराम वर्मा जी तथा डा. के.एन. मिश्रा जी के इस प्रकाशन कार्य में सतत् आत्मिक सहयोग से मुझे बहुत मनोबल मिला है। श्री बी.एन. श्रीवास्तव जी का दिव्य-ग्रन्थों के वितरण में सहायता के लिये मैं आभारी हूँ।

       प्रेस के समस्त प्रकाशन कार्य की जिम्मेदारी श्री प्रदीप भार्गव जी ने अपने कंधों पर लेकर जो निश्चिन्तता मुझे प्रदान की है इसके लिये मैं सदैव उनका ऋणी रहूँगा। श्री काशी मिश्रा जी को सदा की भाँति अनुपम कवर-डिजाइनिंग (मुखपृष्ठ-सज्जा) द्वारा ग्रन्थों के शोभा बढ़ाने के लिये हार्दिक धन्यवाद। श्री टी. सदागोपन जी की टाइपिंग, ग्रन्थ-वितरण तथा संपूर्ण प्रबंधन में असीमित सहयोग के लिये आभार प्रकट करने के लिये मेरे पास शब्द नहीं है। इन दिव्य ग्रन्थों के प्रकाशन कार्य में श्री सदागोपन जी का साथ मुझ पर भगवान की कृपा है। 

       यह सब प्रकाशन कार्य श्री गुरुदेव की ही असीम कृपा से संभव हो रहा है। वे ही सब साधन जुटाने वाले हैं, वे ही सब कराने वाले हैं। ये परंपूज्य गुरुदेव के उपदेश हैं, जिनके समक्ष सारे देवी देवता, तथा हर धर्म के पैगम्बर, सिद्ध सन्त प्रकट होकर आध्यात्मिक पद लिखवाते थे। उनके ये उपदेश अत्यन्त सरल व हृदयग्राही हैं। ये सब धर्मों के पालन करने वालों तथा हर किसी गुरु परम्परा के मानने वाले भक्तों को प्रेरणा प्रदान करने वाले हैं।

       ये उपदेश परं कल्याणकारी हैं तथा इस जगत में अमृत के समान हैं। यह सत्य है, यह सत्य है, यह सत्य है।
 

दिनांक ९ मई २००५
श्री गुरुदेव का परंतुच्छ दास
राजीव लोचन
(राजीव कुमार वर्मा)