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२८० ॥ श्री राम दीन जी॥


शेर:-

जो षट रुपों को अपनाये वही तय्यार बैठे हैं।

जे मन से हारिगे यहँ पर लिहे दुख भार बैठे हैं॥


दोहा:-

कामी क्रोधी लालची गुरु द्रोही नर नारि।

अन्त समय जम आय के उनको लेहिं पछारि॥

चतुराई चौपट भई ज्ञान गुष्टि गई भागि॥

पढ़ि सुनि उपदेसन लगे मन गो तन से भागि॥

ज्ञान भक्ति झूठै कथैं जान्यो नहिं कछु सार।

अन्त समय जम लेंय गहि चलै नैन जल धार।३।

ठ ट ठ ट ठ ठ ट ठ ट ठ ठ ट ठ ट ठ

ठ ॥ दिव्य रामायण ॥ ठ

श्री कृष्ण दास जी पयहारी

ठ ट ठ ट ठ ठ ट ठ ट ठ ठ ट ठ ट ठ

श्री अनन्तानन्द गुरु जी को हम शीश नवाई जी।

जिनकी कृपा कटाक्ष ते कछु हमहूँ तुमको बतलाई जी।

पयहारी श्री कृष्णदास हम को कहते सब भाई जी।

कछु दिन दूध पान हम कीन्हो अब कछु नाहीं पाई जी।

राम नाम परताप से हमरी क्षुधा पियास बुझाई जी।

श्री कलियुग के आखिर तक हम को जग रहना भाई जी।

श्री गिरिजा पति औढर दानी से आशिष हम पाई जी।

देखैं नाना चरित मनोहर बरनत नहीं सेराई जी।

तन मन से जब प्रेम लगावै निर्भय होवै भाई जी।

इच्छा मरन की शक्ती होवै जब चाहै तब जाई जी।१०।

सूरति शब्द की जाप है अजपा मुक्ति भक्ति सुखदाई जी।

शान्ति शील सन्तोष क्षिमा औ दाया सरधा आई जी।

होय दीन तब द्वैत रहै नहि हर दम रूप देखाई जी।

पन्द्रह बिधि कि जाप खुलै तब रोम रोम सुनि पाई जी।

सब सुर मुनि नित दरशन देवैं प्रेम से हंसि बतलाई जी।

जारी........