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२४१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥ (२५३)


चौपाई:-

वाक्य ज्ञान वाले जे प्रानी। निज कुल की मेटी कुल कानी।

निज को समुझि रहे बड़ ज्ञानी। बिरथा बने फिरत अभिमानी।

अन्त समै होवै हैरानी। जम गहिं नर्क में देवैं सानी।

सतगुरु करि सुमिरन जिन जानी। अंधे कहैं धन्य ते प्रानी।४।


चौपाई:-

ठाढ़े चलते लेटे बैठे। साधन करि सब चोरन ऐंठे।

अंधे कह घट भीतर पैठे। चौरासी के छूटे ठैंठे।२।


बार्तिक:-

नाम के अन्दर प्रकास, समाधि, सरूप, सब लोक; रूप के अन्दर नाम, प्रकास, समाधि; प्रकास के अन्दर नाम, रूप, समाधि; समाधि के अन्दर नाम, रूप, प्रकास, सब लोक; मैं अंधा क्या वरनन करूँ, सतगुरु शिव जी, हनुमान जी ने कहा है उस पर मेरा अटल विश्वास है।


दोहा:-

जहाँ भाव तहँ प्रेम है जहाँ प्रेम तहँ भाव।

अंधे कह सतगुरु बचन गहौ मगन ह्वै जाव॥

भजन क साधन प्रेम है भजन क साधन भाव।

अंधे कह मानो सही न मानौ चकराव।२।


चौपाई:-

चींटी चिड़ियन दीन्ह्यो चारा। ते पहुँचे बैकुण्ठ मंझारा।

दया धर्म का फल यह भाई। अंधे कहैं करै सो पाई।२।