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२१० ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(२३५)


पद:-

हरि सुमिरन का मजा लै ले रसिया।

सतगुरु से जप भेद जानि कै तन मन प्रेम में फँसिया।

अनहद सुनो अमी रस चाखौ हर दम गगन से खसिया।

नागिनि चक्र कमल जगि जावैं स्वरन से उड़ै सुबसिया।४।

सुर मुनि मिलैं धन्य धन्य बोलैं उर में जावैं लसिया।

ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि हर शै में है बसिया।

सियाराम प्रिय श्याम रमा हरि सन्मुख लखु रहे हँसिया।

अंधे कहैं अन्त निजपुर हो फेरि गर्भ नहिं धँसिया।८।