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२१० ॥ श्री अंधे शाह जी ॥ (२३०)


पद:-

करिये राम भजन निशि वासर।

सत्गुरु से सुमिरन विधि जानि कै परै न कबहूँ आँतर।

है अनमोल समै स्वाँसा तन कहते सुर मुनि गाकर।

चेतो जुटौ जियति हो करतल बनि जाव वीर हौ कादर।

सारे चोर शाँत ह्वै जावैं मन हो तुमरा चाकर।५।

ध्यान प्रकाश समाधी होवै शुभ औ अशुभ जलाकर।

सुनो नाम धुनि रं रं होती हर शै से भन्नाकर।

अमृत पिओ बजै घट अनहद सुर मुनि संग बतलाकर।

नागिनि जगै चक्र षट नाचैं सातौं कमल फुलाकर।

उड़ै तरंग कहौ क्या मुख से मन्द मन्द मुसक्याकर।१०।

गद गद कंठ रोम सब पुलकैं नैनन नीर बहाकर।

प्रेम की नदी उमड़ि बहि चलिहै ज्ञान करार गिराकर।

तब विज्ञान दशा ह्वै जावै बाल भाव उर आकर।

नेम अचार बिचार गये भगि निर्भय अति सुख पाकर।

सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि सन्मुख हों छबि छाकर।१५।

तुरिया तीत दशा भई भक्तौं सहज समाधि में जाकर।

सब में सब से परे गयो ह्वै यह अमोल धन पाकर।

बड़ी युक्ति से पावत कोई द्वैत किंवार हटाकर।

सुरति शब्द का राज योग यह अंधे कहैं सुनाकर।

अन्त त्यागि तन निज पुर राजौ हरि सा रूप बनाकर।२०।