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२१० ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(२२३)


दोहा:-

जब तक भाव विशाल नहिं तब तक नर तन फीक।

अंधे कह तन मन जुरे, तब ह्वै जावै नीक॥


कवित्त:-

बाजी कहैं बाजी बंशी बाजी कहैं बाजी बंशी

बाजी कहैं बाजी बंशी साँवरे सुघर की।

बाजी उठि धाईं बाजी देखवे को दौरी आईं

बाजी मुरझाईं सुनि तान गिरधर की।

बाजी न धरत धीर बाजी ना संभारै चीर

बाजिन के उठी पीर बिरहा अनल की।

बाजी कहैं कैसी बाजी बाजी कहैं वैसी बाजी

बाजी कहै ऐसी बाजी मेरे प्राण हरि की।४।