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१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(१८५)


पद:-

गुन बनते गृह बनत नहीं हैं बर कन्या के ब्याहन में।

अन्धे कहैं करो मत शादी पड़िहैं दुःख अथाहन में।

जैसे जीव निकसि किमि पावै कंटक गाड़े राहन में।

सोचि बिचारि लौटि घर आवै सुःख नहीं मन चाहन में।४।

जैसे ऊँचा नीचा कूचा बना जहाँ तहँ पाहन में।

नेक निगाह चूकि जो जावै चोट नीकि हो माहन में।

सतगुरु करै भजन बिधि जानै फिरि न जाय भव दाहन में।

अन्त छोड़ि तन अवध में पहुँचै बैठै शाँति से साहन में।८।