१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(१४३)
पद:-
निज कुल हरि सुमिरन परिपाटी।
सतगुरु करि जप भेद जानि लो तब न बिलरिया काटी।
ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि कर्म शुभाशुभ चाटी।
सुर मुनि नित्य पवावैं भक्तौं घी शक्कर औ बाटी।
सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि सन्मुख छबि दें साटी।
अन्धे कहैं अन्त निजपुर हो जग छूटै जिमि माटी।६।