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१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(११)


पद:-

मोसे काहे करत हरि रोज रारि।

कर मेरो पकरि कलाई मुरकावत बहियाँ गले दोऊ डारि डारि।

दधि मोरी खाय मटकिया फोरत सारी के करते तार तार।

घर के लोग हमैं रिसियाते आप से गई मैं हारि हारि।४।

चितवत ही मन मोहि लेत हौ बसि में किह्यौ बृज नारि नारि।

चोली को नोचि डगर में फेंकत मुरली से हँसि मारि मारि।

दौरि गांसि मटकावत फिरि फिरि ठौर ठौर से टारि टारि।

अंधे कहैं सखी प्रभु प्रेम में शर्म भर्म दियो जारि जारि।८।