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४१७ ॥ श्री बैठे शाह जी ॥


पद:-

जीवन के कल्यान हेतु श्री आदि पुरुष ढारी सृष्टी।१।

लख चौरासी अंश प्रगट करि निज तन से कीन्ही बृष्टी।२।

कितने प्रभु को ध्याय रहै हैं कितनेन की बुद्धी भ्रष्टी।३।

कर्मन के चक्कर में नाचत जैसी मति वैसी द्रष्टी।४।


चौपाई:-

प्रथम गुरु के ध्यान को धरना।प्रेम भाव से सुमिरन करना।

तब ही होय जियति भव तरना। चौरासी का छूटै परना।

बड़ा सहज जग माहिं बिचरना। परै कठिन जब होय निकरना।

या से सुलभ उपाय और ना। बैठि के सुमिरौ तजौ दौरना।

इन बचनों में करो गौरना। तो पावोगे कहीं ठौर ना।५।

ऐसा कोई बिकट भौंरना। चकरावो मुख होय औरना।

मथुरा को रा को रा को।

मथन कि बिधि सतगुरु करि जानो प्रेम भाव से ताको।

ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि रूप सामने झाँको।

हर दम झाँकी सन्मुख वाँकी अमृत पी कर छाको।१०।

जियतै में जब करतल होवै लिखी करम गति टाँको।

सुर मुनि सब जै कार मनावैं तेरे पितु औ मां को।

या से चेति करो नर नारी कौन यहां है का को।

बिनती सब से करूँ जोरि कर बैन मान उर आँको।

अन्त त्यागि तन अचल धाम लो छूटै जग का चाकौ।

जो नहिं मानो कहा हमारा तो फिर फकना फाँकौ।१६।