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३७९ ॥ श्री गाज़ी मियां जी ॥ (३३)


पद:-

दीनता शान्ति की नकलैं बड़ी अच्छी जगह धरना।

सदा सतगुरु के चरनो में दोऊ कर जोरि के परना।

छिमा संतोष औ श्रृद्धा धर्म दाया सदा करना।

प्रेम औ भाव विश्वासा सत्य औ शील में ठरना।

यही नकलों के अधिकारी होय कबहूँ नहीं सरना।५।

इसी से होयगी डिगरी नहीं बिगड़ी रही सुधरी,

यह बातैं ख्याल कर लीजै जियत में होयगा तरना।

मान लो यह बिनय मेरी चोर अब नहिं सकैं हेरी,

देव मुनि सब मिलैं घेरी कहैं जियतै भया मरना।

न कोई बात है कर्री न इस में है कोई मुर्री,

मान जो निज को ले धुर्री वही जियतै भया सरना।

मिलै साकेत में बासा अजर औ अमर तन खासा,

न कोइ इच्छा न कोइ आसा मौन हरि रूप रंग बरना।

कहैं गाज़ी मिया गाज़ी न मानै सो रहै राजी,

काल कि जाय ह्वै भाजी अन्त भव जाल में गरना।१०।


चौपाई:-

प्रेम का बास नैन में जानो। ध्यान बसत त्रिकुटी में मानो।१।

ज्ञान शून्य में करत निवासा। अमर पुरी विज्ञान क वासा।२।

श्री गुरु मुख की है यह बानी। जो जानी सोई मन मानी।३।

सूरति शब्द पै अपनी दीजै। गाज़ी कहैं भजन करि लीजै।४।