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३५५ ॥ श्री लाला दशरथ लाल जी ॥


पद:-

भरथ राम की प्रीति अगम जहँ रज तम सत को मन नहिं जावै।

बिधि हरि हर फणपति औ गण पति शारद कहि न सकैं सकुचावै।

प्राण जीव आतम में मिलकर परमातम में जाय समावै।

कहन सुनन ते परे गयो ह्वै एक रूप तेहि को बिलगावै।

सतगुरु करि सुमिरन बिधि जानै तब जियतै करतल करि पावै।५।

ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि सन्मुख राम सिया छवि छावैं।

अमृत पियै सुनै घट अनहद सुर मुनि मिलैं बिहँसि उर लावैं।

नागिनि जगै चक्र सब बेधैं कमल खिलैं क्या महक उड़ावैं।

निर्भय औ निर्बैर जाय ह्वै माया असुर न नेरे आवैं।

अन्त त्यागि तन निज पुर राजैं फेरि न चौरासी चकरावै।१०।