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३३३ ॥ श्री अन्धी माई जी॥


पद:-

याद कर कर्म निज खोंटे जीव सतगुरु के ढिग जाते।

वहां तन मन से ब्याकुल ह्वै परैं चरनों में अकुलाते।

बयाँ चिट्ठा करैं अपना ज़रा पर्दा नहीं लाते।

उसी छन प्रभु दया सागर माफ़ सब करके अपनाते।

नाम जप की बिधी देवैं ध्यान धुनि नूर लय पाते।५।

सुनै अनहद चखै अमृत देव मुनि संघ बतलाते।

जगै नागिनि चलैं चक्कर कमल सब उलटि खिल जाते।

महक सब स्वरन से निकलैं कहन में सो नहीं आते।

रहैं उनके सदा सन्मुख राधिका श्याम मुसक्याते।

सदा निर्बैर औ निर्भय चरित हरि के बिमल गाते।१०।

मिलै तर खुश्क जो भोजन उसे लै प्रेम से खाते।

अन्त तन तजि चलैं निज पुर कहै अन्धी वही माते।१२।