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२६३ ॥ श्री बलवन्ती माई जी, मुकाम संडीला ॥


पद:-

कीजै बास द्वारा वती।

जाप बिधि सतगुरु से लीजै ठीक हो तब मती।

ध्यान धुनि परकाश लय हो जहां सुधि नहिं रती।

चखौ अमृत सुनौ अनहद मिलैं सुर मुनि अती।

छटा छबि श्रृंगार सन्मुख रहैं त्रिभुवन पती।५।

अन्त तन तजि चलो प्रभु पुर जियति बनि लो सती।

दीनता औ शान्ति गहि जो कर्म डारै हती।

कहै बलवन्ती गुनो चित तब तो होवै गती।८।