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१ ॥ श्री काली दीन जी ॥


पद:-

मन तुम प्रेत समान सतावत।

सुमिरन पाठ कीर्तन पूजन में हमको बिलगावत।

नाच तमाशा स्वांग बिषय में तब कहुँ भागि न जावत।

नीक कहैं नेकों नहिं समुझत ऊपर डाँट सुनावत।

का नुकसान कीन तुमरा हम कहि क्यों नहिं समुझावत।५।

गर्भ में जौन करार किह्यो संघ सो मिलि नाहिं चुकावत।

अब नहिं चले जबरदस्ती यह श्री गुरु ढिग हम जावत।

राम नाम बिधि जानि लेय तब देखैं कहां लुकावत।

मित्र भाव आखिर तब करिहौ अब ही पास न आवत।

लै परकाश ध्यान धुनि पैहौ जो भव ताप नसावत।१०।

सीता राम रहैं नित सन्मुख जो सब में छबि छावत।

काली दीन कहैं यह मारग भाग्यवान कोइ पावत।१२।


दोहा:-

मन तोता मानै नहीं काटै फल बहु धाय।

भूखा ज्यों का त्यों रहै निज स्वभाव नहिं जाय।१।

मन मर्कट मानै नहीं घूमै डारै डार।

चोट खाय गिरि फिर चढ़ै निज स्वभाव उर धार।२।

श्री गुरु बिन नहिं होय बस कहते काली दीन।

चंचलता या की कठिन जानि नाम जप लीन।३।