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९०७ ॥ श्री छबि नाथ जी ॥


पद:-

बिना प्रिय श्याम के देखे हमें कछु नहिं सुहाता है।

बिरह की लौ लगै जिसके जला निशि बार जाता है।

पिता माता भ्रात पुर जन नारि सुत झूँठ नाता है।

कहा मानो मेरे भाई ये तन आनन्द दाता है।५।

करो मुरशिद चखो अमृत इसी में सब दिखाताहै।

अन्त हरि धाम में चल कर रूप रंग हरि सा पाता है।

मिलै आसन सिंहासन पर लगा अनमोल छाता है।

दिब्य तन में बसन भूषण मौन नहिं बोलि पाता है।

बयस बारह बर्ष की क्या निरखि तन मन लुभाता है।१०।

कृष्ण राधे की जै जै जै सदा छबि नाथ गाता है।

करै सुमिरन वही जाने प्रेम में जौन माता है।११।