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८९४ ॥ श्री चिम्मन शाह जी ॥


पद:-

करो सतगुरु कटै बन्धन बड़ा भव सिन्धु भारी है।

नहीं तो जान के लाले पड़ैं आखिर में ख्वारी है।

यहां कोई नहीं तेरा यह सब जाली पसारी है।

प्राण तन से जहां निकले देत मरघट में डारी है।

स्वार्थ हित रोवते कछु दिन फेरि सुधि बुधि बिसारी है।५।

संग नेकी बदी जावै लिखा जो वह सँभारी है।

तुम्है जमदूत लै जावैं जहां दरबार जारी है।

तहां पर देखिहौ चलि के जमा कितने नर नारी हैं।

कर्म अनुसार दुख सुख दें बड़े इन्साफ़ कारी हैं।

कपट त्यागो बनो निर्मल लखो सन्मुख बिहारी हैं।१०।

ध्यान लै नूर जप अजपा बजै अनहद सुख भारी है।

कहै चिम्मन जियत जानो जगत से तब न्यारी है।१२।