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८२९ ॥ श्री नीरू जी ॥


पद:-

छटा सिय राम की हर दम मेरे सन्मुख रहे छाई।

दहिने कर में सर सोहै बाम कर धनुष सुख दाई।

मन्द मुसक्यान मन मोहै मरी सब बासना भाई।

नाम की धुनि सदा होती रगन रोवन ते भन्नाई।

ध्यान परकाश लय होती जहां सुधि बुधि न कछु आई।५।

देव मुनि देत नित दर्शन कहैं हरि जस मधुर गाई।

बजै अनहद सुघर घट में बिना सतगुरु न लखि पाई।

कहैं नीरू निबृत्ति का मार्ग यह हमने बतलाई।८।