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७७६ ॥ श्री सहूला जी ॥


पद:-

भजन हरि का जे नहिं करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

नाम की धुनि नहीं सुनते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

ध्यान सतगुरु का नहिं करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

नूर लय में नहीं परते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

रूप हर दम नहीं लखते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।५।

जियत में तै नहीं करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

सदा निर्वैर नहीं रहते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

बचन कटु जे नहीं सहते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

बड़ों से अदब नहीं करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

देव जो सब नहीं मनते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।१०।

तीर्थ की निन्दा जे करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

मूरति में प्रेम नहिं करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

संग भक्तों के नहीं बसते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

गाड़ के धन को जे रखते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

पाय धन धर्म नहिं करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।१५।

बचन कह कर जे छल करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

दुःख आने में जे डरते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

दग़ा कर धन को जे हरते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

बचन बीच में जे कटते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

जे पर दारा से रति करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।२०।

सत्य को ग्रहण नहीं करते हैं उनकी जिन्दगी में थू।

दीनता शान्ति नहिं गहते हैं उनकी जिन्दगी में थू।

दया अच्छा नहीं रखते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

छमा सन्तोष नहिं करते हैं उनकी जिन्दगी में थू।

शील को तन से जे तजते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।२५।

प्रेम में मस्त नहीं रहते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

नींद आलस में जे रहते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

उचित अनुचित नहीं गुनते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

दोफ़सली बात जे करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

बिना अरपे उदर भरते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।३०।

साफ़ इन्साफ़ नहिं करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

चकर औ मकर जे तकते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

दमन इन्द्रिन नहीं करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

दुखी को देख जे हंसते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

अतिथि को देख जे भुँकते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।३५।

बिना समझे जे जल पीते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

कथा कीरतन जे नहिं सुनते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

सरन संतन कि नहिं चलते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

बिना पूछे जे कछु कहते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

बिना जाने बका करते हैं उनकी ज़िन्दगी में थू।

सहूला कह वही गिरते हैं उनकी जिन्दगी में थू।४१।


पद:-

चेली हुई मैं तो श्री महराज रामानन्द की।

छटा छवि श्रृंगार हर दम लखौ आनन्द कन्द की।१।

निर्मल हुआ तन मन मेरा श्री प्रेम निधि प्रसन्न की।

अनुपम अमी प्याला पिया अब क्या है शिरिं कन्द की।२।

अजपा कि जाप सुफ़ल उसे जिसने ये बकना बन्द की।

कैसे मिलैं उनको प्रभु जिन द्वैत पल्ला बन्द की।३।

कपट की टाटी हटै शीशे को जिसने मन्द की।

कहती सहूला त्रिगुन के ऊपर है चाल विहंग की।४।