साईट में खोजें

७७३ ॥ श्री दुर दुरे शाह जी ॥ (२)

पतेहू नन्द से राधे प्यारी।

सग दमाद बृषभन ऊ ताकी है न्यारी।

सतगुरु करि सुमिरन हर वक्त निहारी।

ध्यान प्रकाश समाधि नूर शुबा शुभ जारी।

अमृत पिये सुने घट अनहद सुर मुनि मिलैं पुकारी।५।

नागिन जगै चक्र सब घूमैं कमल खिलैं एक तारी।

अन्त त्यागि तन विज पुर बैठै जग में लात को मारी।

कहैं दुर दुरे शाह होय तब दोनो दिसि बलिहारी।८।