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६९३ ॥ श्री मंजारी माई जी ॥ (२)


पद:-

लचकि छमकि नाचि नाचि कूदत दै तारी।

गोपी ग्वाल संग राजैं छम छम पग घँघरू बाजैं ब्रज में सुख भारी।

सुभग बसन अंग डारे, कानन कुण्डल संवारे केशरि,

को तिलक भाल मोर मुकुट धारि।

वंशी की अजब तान निरखत सुर चढ़ि बिमान

बोलत बलिहारी।

राधे तहं बाम भाग, गावैं क्या ध्रुपद राग,

छूटत सुनि कलुष दाग, त्रिभुवन सुख कारी।

सतगुरु करि जपै नाम निरखैं ते अष्ट याम,

तन तजि ले अचल धाम छूटै जग पारी।६।