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६३७ ॥ श्री हसीन जान जी ॥


चौपाई:-

नाचेन गायन कसब करायन। धन कमाय परिवार जिआयन॥

भूषन बसन असन मन भावा। पहिरेन पायन समय बितावा॥

नई जवानी धर्म न जाना। बन्द रहे तब आंखी काना॥

चौथे पन में पलटा ज्ञाना। तब श्री काशी कीन पयाना॥

पहुँचि पुरी गंगा तट जाई। हाथ जोरि के शीश नवाई।५।

तव स्नान कीन्ह हर्षाई। बसन बदलि फिर धोय सुखाई॥

चली वहां से फिर मैं भाई। विश्वनाथ मन्दिर ढिग आई।

दूर ते बिनय कीन कर जोरे। माफ़ करो शिव अवगुन मोरे।

अन्न पूरणा के दरबारा। दीन हाजिरी शिर धरि द्वारा।

दण्ड पाण्ड़ि भैरव ढिग आई। कीन प्रार्थना तन मन लाई।१०।

स्वामी रामानन्द जहां पर। पूंछत पहुँची जाय तहां पर।

शान्ति दीनता उर धरि लीन्हा। फेरी पांच कुटी कर कीन्हा।

चौखट पर फिर शिर धरि दीन्हा। सात बार जय घोष को कीन्हा।

शिष्य मण्डली परम प्रवीना। सब के दूर ते पग धरि लीन्हा।

तीस कदम हटि बैठेन जाई। परदा हटा श्याम द्युति छाई।१५।

दर्शन भये बरनि नहिं जाई। शोभा उर में जाय समाई।

स्वामी जी मन की सब जाना। शंख फूंकि दियो नाम क दाना।

ध्यान समाधि प्रकाश महाना। अनहद नाद की खुलि गई ताना।

नाम कि धुनि रग रोवन छाई। राम सिया समुहे भये आई।

नागिन चक्र कमल दर्शाने। सुर देखा निज निज जो थाने।२०।

शक्ती सुर मुनि आवन लागे। एक ते एक प्रेम रस पागे।

जियतै पाप ताप सब नाशे। छिनही में जिमि बारि बताशे।

बीस वरष काशी करि बासा। कीन्ही पूरी तहं सब स्वांसा।

तन तजि राम धाम हम पावा। सत्य भेद तुम से बतलावा।


दोहा:-

सिन्धु हैदराबाद थी, जन्म भूमि मम जान।

हसीन जान मम नाम था, मानो बचन प्रमान।१।

हसीन जान हंसि कहत हैं, सुमिरन बिन धृग चर्म।

सतगुरु बिन नहिं मिलि सकै, किसी को याको मर्म।२।