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४०६ ॥ श्री अनन्य दास जी ॥


पद:-

सांचे भक्त अनन्य कहावैं।

सतगुरु से जप भेद जान के तन मन प्रेम से ध्यावै।

ध्यान प्रकाश समाधि होवै शुभ औ अशुभ जरावै।

राम नाम धुनि रग रोवन औ हर शै से सुनि पावै।

सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि सन्मुख में छवि छावै।५।

सुर मुनि दर्शन दें आय नित हर्ष के उर में लावैं।

अनहद सुनैं बजै घट हर दम अमी पाय हर्षावैं।

नागिन जगै चक्र षट वेधैं सातों कमल खिलावैं।

सब में अपने इष्ट को देखैं जियतै भेद मिटावैं।

अन्त त्यागि तन निज पुर बैठैं फेरि न जग में आवैं।१०।

पढ़ि सुन के जे बातैं करते ते फिर धोका खावैं।

विषय वासना संग न छोड़ै बार बार चकरावैं।

झूठे भक्त उन्हीं को कहते सुर मुनि बेद बतावैं।

नाम रूप को जान्यो नाहीं समय अमोल गंवावैं।

राम कृष्ण औ विष्णु नाम सुनि रिस कर गाल फुलावैं।१५।

उन सम अधम और को जग में निज सिर पाप चढ़ावैं।

उनके गुरु वैसे ही जानो जे यह सीख सिखावैं।

सत्य कहौ तो झूंठ मानि कै उठ चट मारन धावैं।

माया जाल में ऐसे भूले मन मानी नित गावैं।

आखिर का परिनाम बुरा है मुख में मसी लगावैं।२०।