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३४४ ॥ श्री छत्तीस कवि जी ॥


पद:-

कृपा के पात्र हैं जे जन उन्हीं पर प्रभु कृपा करते।

वही सतगुरु के सेवक बन, जियत भव सिन्धु हैं तरते।

ध्यान धुनि नूर लय पाकर कर्म दोनों को हैं जरते।

रूप सन्मुख सदा उनके दीनता शान्ति से भरते।

सुनै अनहद मिलैं सुर मुनि विहंसि उनके चरन परते।५।

कमल सातौं खिलैं देखैं चक्र भी षट चला करते।

जगै नागिनि चलै ऊपर अमी पी मस्त नहिं मरते।

कहैं छत्तीस साधन कर करो पहिचान निज घर ते।८।


पद:-

कलेवर काल का भोजन एक दिन होयगा भाई।

कहैं छत्तीस छत्तिस सम रहै जग में सो सुख पाई।

करै सतगुरु मिलै मारग ध्यान धुनि नूर लय धाई।

सदा सिय राम की झांकी सामने में रहै छाई।

मिलैं सुर मुनि सुनै अनहद बरनि मुख से न कछु जाई।५।

कमल फूलैं सुधै चक्कर नागिनी लोक दिखलाई।

दीनता शान्ति तन मन से गहै सो अचल पद पाई।

वही नेमी वही टेमी वही प्रेमी न चकराई।८।