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१६१ ॥ श्री हर्राफ़ खां जी ॥


पद:-

मूर्ति पूजन क खण्डन करैं जे वशर,

उनको जानो हैं अधरम के सरदार जी।१।

ईश सब में रमा मूर्ति बाहेर कहीं,

देव मुनि वेद कहते हैं निशिवार जी।२।

आस्तिक नास्तिक दुइ के संयोग से,

तो रचा ही गया है यह संसार जी।३।

कहते हर्राफ़ खां सुखमन सूखत रहै,

काक बानर न पावैंगे कछु सार जी।४।


पद:-

मूर्तियाँ तोड़ने की सज़ा जो मिली,

सो वही भोगते जिन तोड़ाया यहां।

मार कोड़ों कि शैतान दें हर समय,

बाँधि काटों के तरु में झुलाया वहाँ।

सोई जाते हैं वहं पर सहैं दुःख यह,

जिन धरम को है तन से भुलाया यहाँ।

आह नारे से दोज़ख रहा गूँज है,

जात कर्मों का लेखा चुकाया वहाँ।

धर्म अपना बिराना बचाने क फल,

कहते हर्राफ़ खां हम ने पाया यहाँ।

द्वैत परदा हटा देव मुनि दें दरश,

जाऊँ दरबार में नित बुलाया वहाँ।६।