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११२ ॥ श्री विद्या सागर जी ॥


पद:-

अपने ठेंठर नहि लखैं, और कि ताकत छींट।

ते जन तन को त्यागि कै, फेरि होहिं जग कीट।

अपना पाप छिपावते, और को कहते गाय।

आधा वाको लेत हैं, भोगैं कलपन जाय।४।

बेकसूर जीवन हनैं, निज को मानैं वीर।

उनके तन पर नर्क में, जमन के चलिहैं तीर।

जीवन को मरवावते, बैठे बने अमीर।

अन्त नर्क में चलि पड़ैं, भूलैं सब तदवीर।८।


पद:-

अनर गल बातों में पड़कर समै अपना गंवाया हा।१।

बुरे कर्मों को सुख माना दया उर में न लाया हा।२।

मिला क्या नर्क का तकमा जियति में यह कमाया हा।३।

दुक्ख की खानि को बरनै कर्म अनुसार पाया हा।४।


पद:-

जग में आइकै काह कमायो।

काम क्रोध मद लोभ मोह के नाते दार कहायो।

मन को जीति किह्यो नहिं सुमिरन विरथा वैस गंवायो।

सत संगति का नाम न जान्यो तजि अमृत बिख खायो।

अब ही चेत अचेत दशा में अन्त समै बतलायो।५।

लै जमदूत नर्क में डारैं रोइ रोइ पछितायो।

भोजन भांति भांति यहं पावत वहां मूत्र मल पायो।

हरि सुमिरन बिन पार न ह्वै हौ चौरासी चकरायो।८।


पद:-

हरि से जीव करत बेइमानी।

गर्भ में कीन करार भजैं हम अब बनि बैठा मानी।

चोरी चुगली पर दारा रत या में मति लपटानी।

कोरा ज्ञान कथन में आतुर चातुरता नहिं जानी।

बारू पेरे तेल चुवत कहुँ डारत नाहक घानी।५।

असुरन की संगति दुखदाई सो है तोहि स्वहानी।

अगणित जन्म से चक्कर काटत समुझत लाभ न हानी।

कथा कीर्तन सुनि दुख व्यापत मानहु मर गइ नानी।

हर दम विषै भोग में माता पाप कि छायो छानी।

तन के भीतर हम हम बोलत मानत निज रजधानी।१०।

यह तन कच्चे घट सम फूटी मिलै न कौड़ी कानी।

या से कहा मानु हे भाई करु सतगुरु छूटै हैरानी।

ध्यान समाधि नूर धुनि सुनु तू तन मन प्रेम में सानी।

राजा राम होय तब सन्मुख संघ में सीता रानी।

सुर मुनि आय करैं पैकरमा बोलैं जै जै बानी।

नाम गहै सो जियति लहै सब हम यह सत्य बखानी।१६।