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४९० ॥ श्री तकीवेग जी ॥


पद:-

साधु का भेष धारन कर किसी को फिर सताना क्या।

त्यागि सब ऐश दुनिया के किसी पर फिर लोभाना क्या।

समर में जाय कर भाई तो पीछे पग हटाना क्या।

सिंह के साथ में रहकर गीदड़ो से डराना क्या।

धरी शीरीं जो हो घर में तो फिर शीरा पिलाना क्या।५।

दुःख गर आन पड़ि जावै सहै चुपके बताना क्या।

नाम धन पास में होवै तो फिर बाँटै छिपाना क्या।

ध्यान धुनि नूर लै पाकर बृथा बकवाद करना क्या।

होय धन तो धरम करिये गाड़ झूठे को धरना क्या।

मान अपमान गर होवै तो उस पर ध्यान करना क्या।१०।

बजै अनहद सुघर तन में सुनौ फिर अन्त चलना क्या।

ज़बानी ज्ञान पढ़ि सुनि कथि के फिर ऊपर उछलना क्या।

सतोगुन का जो हो भोजन तो मन इन्द्रिन बिगड़ना क्या।

होय जो कम हक़ीक़त का उसे भाई दबाना क्या।

इल्म तुमसे पढ़ा कम हो उसे सुनिये बकाना क्या।१५।

आँख जिसके न हों दोनों उसे शीशा देखाना क्या।

श्रवण दोनों जो हों बहिरे उसे गाना सुनाना क्या।

जागता है जो निशि बासर उसे भाई जगाना क्या।

मिलै सतगुरु जिसे सांचा उसे तब फिर रिझाना क्या।

देव मुनि संग बतलावैं तो फिर जग में बिचरना क्या।२०।

कथा औ कीरत जहँ हो वहाँ अभिमान करना क्या।

प्रेम में चूर हो जावै उसे कफनी लगाना क्या।

राम सीता रहैं सन्मुख तो फिर अब और करना क्या।

तकी कहता जियत में जान कर फिर गर्भ पड़ना क्या।२४।