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४३६ ॥ श्री नासिक जी ॥


चौपाई:-

पंचवटी मानौ है यह तन। राम सिया राजैं संग लछिमन।१।

सुर मुनि असुर नाग नर खग मृग। सरिता सागर बन गिरि औ जग।२।

या के भीतर सब कछु भाई। सतगुरु करै तौन लखि पाई।३।

तन मन प्रेम लगै हरि नामा। पूरन होवै तब सब कामा।४।


दोहा:-

अहंकार रावण मरै, कपट मरै मारीच।

नासिक कह तब जीव फिरि फंसै न भव के कीच॥


चौपाई:-

पृथ्वी तत्व को बट तरु जानो। पीपर तरु जल तत्वहिं मानो।

अगिन तत्व पाकरि तरु भाई। तत्व समीर रसाल कहाई।

तरु तमाल है तत्व अकाशा। पंचवटी आश्रम यह खाशा।

सतगुन काष्ठ औ रज गुण पाती। तम गुण बन्धन सोहत लाती।

गुदरी पांच तत्व की भाई। तीनि गुणन की चाल समाई।

ब्रह्म जीव माया बनि खेलै। आपै न्यारा आप सकेलै।६।


सोरठा:-

यह सब ब्रह्म बिलास, नासिक कह सुनि लीजिये।

नाम से करि विश्वास, जियतै सब लखि लीजिये॥