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३१५ ॥ श्री हरि दास जी ॥


पद:-

कृष्ण राधे कि छबि अनुपम वरनने में न आती है।

देखि कै सुर व मुनि मोहैं सबों के दिल चुराती हैं।

महकता है बदन सारा फुलेलो इत्र से हर दम।

त्रिबिधि वायु चलै निशि दिन महक बृज भर में छाती हैं।

करैं अस्नान यमुना जल में जा कर के जुगुल जोड़ी।५।

बलैयां यमुना जी लेतीं बिहँसि गोदी उठाती हैं।

पगों के नूपुरों की धुनि चलत में होती है छम छम।

मधुर मुरली बजा देते तो सब सुध बुध भुलाती हैं।

चाल चितवनि अजब प्यारी निरखते बनती क्या कहना।

श्याम औ पीत परकाशैं निकल सब ओर जाती हैं।१०।

मुलायम बदन ऐसे हैं कि जैसे दूध का फेना।

चँवर मधु पुरी नित ढोरैं अवनि बिस्तर लगाती हैं।

कहैं हरि दास सतगुरु करि लखौ सब ठौर ही बैठे।

धुनी औ ध्यान परकाशा दशा लय सब सँघाती हैं।१४।