२९४ ॥ श्री दुर्गा दास जी ॥
पद:-
कैसे कैसे गहो मो को श्याम।
दोउ कर पकरि के दिहेव लड़ाई चुरिया फूटि गिरे महि जाई
ऐसे निडर भयो दुख दाई कौन नीक यह काम।
हँसी मसखरी करना लाला ठीक नहीं यह सुनिये चाला
मातु पिता सुनिहैं जब हाला ह्वै हौ तब बदनाम।
लूगा रोटी पति मोहिं देते कबहूँ नहिं असि फजिहत करते
प्रेम भाव करि हमसे बोलते जिनकी हैं हम बाम।
नेक लाज तुमको नहि आवत हंसि हंसि कै कटु बचन सुनावत
ऐसे बैन हमैं नहिं भावत सूझत नहिं बसुयाम।५।
प्रिया से चलत नहीं चतुराई हम सब को नित पकरत धाई
मति तुम्हार हरिगै बैराई पहिरे हौ नर जाम।
निशि में घर घर उधुम मचावत नाक में दम सब की करि आवत
भोर होत अन्तर ह्वै जावत राजत अपने धाम।
बृज की सखी भरन जल जावैं आपै की कीरति सब गावैं
जो कछु बीतै सो बतलावैं हौ हरि सब गुन ग्राम।८।
चौपाई:-
दुर्गादास कहैं कर जोरी। छोड़ि दीन हरि भागी गोरी।
जाय भवन में पहुँची प्यारी। गृह कारज में तन मन धारी।
सूरति हर दम श्याम पै राखै। ऊपर ते कछु औरे भाखै।
नित प्रति श्याम से खेल मचावैं। धनि बृजबासी यह सुख पावैं।
सुर मुनि के जे ध्यान न आवैं। तिनके संग में सब दुलरावैं।
सब हरि की नित जूठनि पावैं। प्रभु नित गृह गृह भोग लगावैं।६।
दोहा:-
बृज की लीला को कहै शारद शेष चुपान।
जगत मातु पितु जहाँ पर करत नित्य गुण गान॥