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२०० ॥ श्री धन्वन्तरि जी ॥


चौपाई:-

बात में ब्रह्मा को है बासा। पित्त में बिष्णु करैं निवासा।

कफ में काम दहन शिव राजैं। त्रै नाड़िन त्रै देव बिराजै॥

तीनों मेल करैं तब जानो। प्रगटै सन्निपात दुख मानो॥

कहैं धन्वन्तरि सुनिये भाई। वैद्य भजै हरि करै दवाई॥

बिन आराधन जग यश नाहीं। सत्य बताय दीन तुम पाहीं।५।

दया धर्म जा के तन होवै। सोई वैद्य जक्त सुख सोवै॥

रोगी देखन को जब जावै। यथा शक्ति कछु धर्म करावै॥

कपटी झूठी औ अभिमानी। पाखण्डी दम्भी अज्ञानी॥

ब्यभिचारी कटु बचन मलिन मति। मैले फटे बसन तन पर अति॥

यहां न यश वहँ दुर्गति होवै। जाय नर्क में हर दम रोवै।१०।

पुत्री बहिन मातु सम भाई। जानै परनारिन जग आई॥

पुत्र भ्रात औ पिता समाना। जानै नरन को तब कल्याना॥

बड़ी के माता करिकै जानै। सम को भगिनी करि कै मानै॥

छोटी को पुत्री करि जाना। सुर मुनि बेद बचन तिन माना।१४।

दोहाः- छोटे नर को पुत्र सम, सम को भ्रात समान।

बड़े को माने पिता सम बेद शास्त्र परमान॥


चौपाई:-

ऋषिन मार्ग यह कीन प्रकाशा। जा से दुखिन क हो दुख नाशा।

वैद्य के सन्त समान हो लक्षन। दवा लाभ करिहै तब तत्क्षण।

पालन कीन चहै परिवारा। तन मन के सब तजै बेकारा।

जो कछु खुशी से धन कोइ देवै। प्रेम पूर्बक सो लै लेवै।

ता के होय बरक्कत भारी। सुख पावैं गृह के नर नारी।५।

या बिधि ते जो जग में रहिहै। धन शिशु ते नहि खाली रहिहै।

तन मन ते मम बचन को मानै। अन्त चलै हरि पुर चढ़ि यानै।७।