१७२ ॥ श्री जगदीश पुरी जी ॥
चौपाई:-
जगन्नाथ हैं कृष्ण सुहावन। संघ बलराम सुभद्रा पावन।
तन मन प्रेम लगाय के जोई। दरशन करै पाप छय होई।
तहां समुद्र रत्नाकर सोहै। लहरैं निरखत तन मन मोहै।
रथयात्रा को उत्सव भारी। दर्शन हित आवत नर नारी।
कह जगदीश पुरी जग जाना। छूति क तहँ पर नहीं ठेकाना।५।