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१५९ ॥ श्री काशी पुरी जी ॥


राग अद्धा:-

दम का क्या ठिकाना भजो सिया बर।

श्यामल गौर किशोर युगुल छबि निरखौ अनुपम आठौ पहर

ऐसा दांव फेरि नहि पैहो तन मन प्राण को करिये नज़र।

नाम कि धुनि खुलि जाय अखण्डित मधुर मधुर होती जो सुघर।

सूरति शब्द क मारग पकड़ौ जियतै जानि लेव निज घर।५।

होहु अभेद अखेद तबै तुम तन छूटै बैठो ह्वै अमर।

पांचौ चोर तीनि गुण माया चारि पचीस के टूटैं पर।

पांचौं तत्व चारिहू तन ये शोधि के पहुँचि जाव ऊपर।

निर्गुण सर्गुण एकै स्वामी जल औ जल की जैसे लहर।

सुर मुनि के दर्शन नित होवैं राम नाम है सब की ज़र।१०।

गरुड़ काक लोमश फणपति शुक जपत निरन्तर बिधि हरि हर।

कमल चक्र कुण्डलिनी जानो इड़ा पिंगला सुखमन कर।

मान सरोवर बैठि नहावो पिओ अमी तब इच्छा भर।

ध्यान में नाना लीला देखौ बरनि सकै को अति सुन्दर।

लय में पहुँचि जाव नहि सुधि बुधि उतरौ सन्मुख सिया रघुबर॥

काशी पुरी कहैं सतगुरु से प्रेम करो तब मारो शर।१६।