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१५८ ॥ श्री देवहूती जी ॥


राग अद्धा:-

बृज में श्याम करत लरिकैंयाँ।

ग्वाल बाल संघ में बहु खेलैं चकई भँवर नचैया।

छुवा छुवौवर खेल करत हंसि भागैं दै कोडरैया।

ग्वाल बाल कोइ पकरि न पावैं थकि सब बैठि जवैया।

हलधर दौरि के पकरैं हरि को हरि हँसि लोटि परैया।५।

ग्वालन को बलिराम पुकारैं दौरौ सब जन भैया।

पकरि लीन हम हरि को देखौ कब के बड़े भगैया।

ग्वाल बाल दौरैं यह सुनि कै हरि कहैं हलधर भैया।

जी मचलात छोड़िये हमको उलटी मनहु होवैया।

छोड़ैं हलधर उठि हरि बैठैं भागैं दै दुचितैया।१०।

आवैं ग्वाल दौरि हलधर ढिग पूछैं कहाँ कन्हैया।

तब बलराम कहैं सुनिये सब भागि गयो हरि भैया।

दूरि खड़ो वह हसतो ठाढ़ो बड़ो चलाक कन्हैया।

दौरि के हरि सब के ढिग आवैं प्रेम प्रीति बढ़वैया।

कहैं खेल अब होय लुकौव्वरि चोर बनै कोइ भैया।१५।

तब मनसुखा कहैं हम बनि हैं लुकिये सब सुखदैया।

भागि जहाँ तहँ सब छिपि बैठैं चलैं मन सुखा धैया।

जाय के हरि के ढिग जस पहुँचै हरि अन्तर ह्वै जैया।

कहैं मन सुखा देखि लीन हम भागि गयो कहँ भैया।

सब सुनि बोल दौरि तहँ आवैं को भा चोर सुखैया।२०।

कहै मनसुखा हरि को देखा भागि कहूँ गो भैय्या।

पीछे से हरि आय कहैं तहँ सुनिये सब खेलवैया।

झूठ कहत हम को कब देखिसि पकरिसि क्यों नहिं धैया।

कहैं सबै सांची हरि कहते है अहमक ढुँढ़वैया।

तब हरि कहैं चलो यमुना जल खेलैं खूब डफैया।२५।

जांय दौरि यमुना हरि संग सब कूदैं प्रथम कन्हैया।

तब फिर सब कूदैं जल भीतर खेलैं छीप छिपैया।

एक से होंय अनेक देर नहिं कोइ न जानि पवैया।

डुबकी मारि कै नीचे जावैं पग पकरैं यदुरैया।

उलटि देंय सब गिरैं धमा धम संगै आप गिरैया।३०।

उठि कै कहैं काह भयो भाई सब जन गिरेन संघैया।

तब सब कहैं जानि नहिं पायन सोचौ कुँवर कन्हैया।

हरि तब कहैं मलौ निज निज तन कौन बात बड़ि भैया।

सुनि सब तन मलने में लागैं हरि बहु रूप बनैया।

चुटकी जाय पगन में काटैं भागैं सब चिलैया।३५।

आपौ भागैं औ चिल्लावैं दूरि जाय ठहेरैया।

ग्वालन से कहैं सुनिये भाई यहँ बहु जीव कटैया।

नीचे आय पगन में काटैं यहां नहाव न भैया।

ग्वाल बाल कहैं ठीक कहत हरि अब यहि घाट न जैया।

सुर मुनि चढ़े बिमानन निरखैं हंसैं सब मुख बैया।४०।

फेरि संभरि कै बिनय करैं हरि तुम सम को सुख दैया।

रह्यौ खेलाय सबै जीवन को आपौ संग खेलैया।

नाना चरित आप के हम सब गावैं पार न पैया।

धरनि के भार उतारन के हित नाना रूप धरैया।

अधम उधारन दीन बन्धु हरि चर औ अचर के रैया।४५।

धन्य भाग्य बृज के सब जीवन दर्शन नित पवैया।

ध्यान समाधि करैं हम सुमिरन तब कहुँ दरश देवैया।

जारी........